सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

मुश्किल समय




  














मुश्किल समय :



उसे हम दोस्त क्या मानें  दिखे मुश्किल में मुश्किल से
मुसीबत में भी अपना हो उसी को दोस्त मानेगें

जो दिल को तोड़ ही डाले उसे हम प्यार क्या जानें
दिल से दिल मिलाये जो उसी को प्यार जानेंगें



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बाप बेटा  माँ या बेटी  स्वार्थ के रिश्ते सभी से
उम्र के अंतिम सफ़र में अपना नहीं कोई दोस्तों

स्वप्न थे सबके दिलों में अपना प्यार हो परिबार हो
स्वार्थ लिप्सा देखकर अब सपना नहीं कोई दोस्तों


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अपने  और गैरों में फर्क करना नहीं यारों
मर्जी क्या खुदा की हो अपने कौन हो जाएँ

जिसे पाला जिसे पोषा अगर बन जायें बह कातिल
हंसी जीवन गुजरने के  सपनें मौन हो जाएँ


प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -२, अंक ८, अक्टूबर २०१३ में

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल युबा सुघोष ,बर्ष -२, अंक ८, अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
बह सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

सुन चुके है बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

इन्सान कि इंसानियत के गीत अब मत गाइए
हमको हमेशा स्वार्थ की मिलती रही तामीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

ब्याकुल हुआ है मदन अब आज के हालत से
आज अपनी लेखनी बनती न क्यों शमशीर है

 


मदन मोहन सक्सेना




रविवार, 29 सितंबर 2013

मेरी पोस्ट (जागरण जंक्शन फोरम सोशल मीडिया ) में




























प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट (जागरण जंक्शन फोरम सोशल मीडिया )  को जागरण जंक्शन में शामिल किया गया है .


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सोशल मीडिया
सोशल मीडिया पर गैर जुम्मेदारी का आरोप लगाकर उसे नियंत्रित करने का सरकार का इरादा वह भी सभी राजनैतिक दलों के सहयोग से बहुत सराहनीय नहीं कहा जा सकता| हाँ जो लेखक गैर जुम्मेदार हैं उन्हें जुम्मेदारी का अहसास सामाजिक जीवन में सीखना ही होगा यही लोकतंत्र की संवैधानिक अपेक्षा है|

सम्प्रति सरकार की इस पहल में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्वारा हाँ में हाँ मिलाना बड़ा आश्चर्यजनक लगता है, जहाँ अधिकांश समाचार अर्ध सत्य भ्रामक तथा राजनैतिक दलों एवं चैनल्स समूह के स्वामियों के हित पोषण हेतु प्रसारित किये जाते हैं| जिन विषयों पर वहाँ परिचर्चा आयोजित होती है उसके कतिपय सहभागी तो जाति धर्म क्षेत्र और रूढिग्रस्त पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहते हैं, और लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक सोच से रिक्त होते हैं, फिर भी उनके हास्यास्पद विचार जनता सुनती है| इन परिचर्चाओं में भाषा की अश्लीलता आये दिन प्रदर्शित होती रहती है| यही नहीं कभी-कभी चैनल्स के सम्पादकीय विभाग की समझ और योग्यता उपहासजनक लगती है दो-चार शब्दों के केपशन तक गलत और अशुद्ध प्रसारित किये जाते हैं|

फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नियंत्रण की बात लोकतांत्रिक समाज को शोभा नहीं देती। लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सोशल नेटवर्क सबसे ज्यादा उपयोगी साबित होता है। जहां तक महिलाओं का मसला है तो ऐसी साइटों के माध्यम से वह अपने अधिकारों से संबंधित जानकारियां हासिल कर सकती हैं, अपनी बात अन्य लोगों को बता सकती हैं। वहीं दूसरी ओर इन सभी साइटों की ही वजह से आमजन अपने आसपास घट रही घटनाओं से परिचित होकर उन पर अपनी टिप्पणी कर सकते हैं, उनसे जुड़े पक्षों से अवगत हो सकते है। साथ ही सरकारी क्रियाकलापों और योजनाओं की जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं। इस वर्ग में शामिल लोग यह भी स्वीकार करते हैं कि हालांकि कुछ शरारती तत्व ऐसे हैं जो शांति व्यवस्था को आहत करने के लिए इन सोशल नेटवर्किंग साइटों का प्रयोग करते हैं लेकिन कुछ चुनिंदा लोगों की वजह से सोशल नेटवर्किंग को नियंत्रित करना सही नहीं है क्योंकि ये वो लोग हैं जो कोई ना कोई माध्यम ढूंढ़कर अपना मकसद पूरा कर ही लेंगे।

प्रिंट मीडिया के कतिपय लेख अवश्य ही विचारणीय होते हैं लेकिन उन्हें भी इतना समझना चाहिये कि उनके कितने समाचार निष्पक्षता के प्रमाण माने जा सकते हैं? क्या विज्ञापन के मोह में उनका लेखकीय दायित्व प्रभावित नहीं होता है? क्या पेड़ न्यूज़ नहीं प्रसरित की जाती हैं जबकि सोशल मीडिया के लेखक केवल राष्ट्र और समाज के हित में निष्पृह लिखते हैं और उसमे भी असहमति के लिए पूरी सम्भावना रहती है| बहस होती है और किसी निष्कर्ष तक पहुँचने की हर संभव कोशिश की जाती है|
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बुलाई गई राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए सोशल मीडिया को आड़े हाथों लिया। उनका कहना था कि सोशल मीडिया का जिस तरह प्रयोग होना चाहिए वैसे नहीं हो पा रहा है। प्रधानमंत्री का कहना था कि युवाओं के लिए सोशल नेटवर्किंग साइटें जानकारियां प्राप्त करने और उन्हें साझा करने का अच्छा माध्यम साबित हो सकती हैं लेकिन इसका प्रयोग इस दिशा में नहीं हो पा रहा है। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उठी यह चर्चा कोई आज की बात नहीं है हर बार यही देखा जाता है कि जब भी कोई घटना घटित होती है तो उससे संबंधित चर्चाएं फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर आम होने लगती हैं। दिल्ली गैंग रेप केस हो या फिर मुजफ्फरनगर में हुए दंगे, हर बार यही देखा जाता है कि कई बार सोशल नेटवर्किंग साइटों पर डाली गई जानकारियां व्यवस्थित माहौल को बिगाड़ने लगती हैं और समाज में एक अजीब से तनाव को जन्म दे देती हैं। महिलाओं की सुरक्षा और सांप्रदायिक सद्भाव दो ऐसे मुद्दे हैं जिस पर सोशल नेटवर्किंग साइटों पर होने वाली पोस्ट सबसे ज्यादा प्रभाव डालती हैं। हमारा समाज बहुत संवेदनशील है और कोई भी नकारात्मक या भ्रामक जानकारी समाज के लिए खतरा पैदा कर सकती है। ऐसे हालातों के मद्देनजर सोशल नेटविंग साइटों पर नियंत्रण और महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ी उनकी भूमिका को लेकर एक बहस शुरू हो गई है।

वर्तमान में सोशल मीडिया जनता की आवाज़ है और ऐसी आवाज़ है जो सत्ता शासन तथा प्रशासन के कानो तक न केवल पहुँच रही है अपितु उन्हें कुछ करने के लिए प्रेरित और मजबूर करती है कदाचित यह आवाज़ उनकी निरंकुशता को आहत करती है इसलिए इसके विरुद्ध उनकी एकजुटता दिख रही है अन्यथा उनमे जितना दुराव हैं उतना न तो समाज में हैं और न राष्ट्रीय जीवन के किसी अंग में, तथापि सोशल मीडिया के कुछ राजनैतिक सोच से दबे हुए लेखकों को अपने अंदर सुधार अपेक्षित है इसे भी नहीं नकारा जा सकता| अनियंत्रित सोशल मीडिया शांति व्यवस्था के लिए किस प्रकार खतरा नहीं हो सकती है. सोशल मीडिया का उपयोग महिलाओं की सुरक्षा और उनकी अस्मिता के लिए खतरा नहीं है. नियंत्रित सोशल मीडिया लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांत के खिलाफ नहीं है. अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किसी की निजता का हनन सही नहीं है.



मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

खुद से मिलन



























आँख से अब नहीं दिख रहा है जहाँ ,आज क्या हो रहा है मेरे संग यहाँ
माँ का रोना नहीं अब मैं सुन पा रहा ,कान मेरे ये दोनों क्यों बहरें हुए.

उम्र भर जिसको अपना मैं कहता रहा ,दूर जानो को बह मुझसे बहता रहा.
आग होती है क्या आज मालूम चला,जल रहा हूँ मैं चुपचाप ठहरे हुए.

शाम ज्यों धीरे धीरे सी ढलने लगी, छोंड तनहा मुझे भीड़ चलने लगी.
अब तो तन है धुंआ और मन है धुंआ ,आज बदल धुएँ के क्यों गहरे हुए..

ज्यों जिस्म का पूरा जलना हुआ,उस समय खुद से फिर मेरा मिलना हुआ
एक मुद्दत हुयी मुझको कैदी बने,मैनें जाना नहीं कब से पहरें हुए.


मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

तिल का ताड़


 
नेता क्या अभिनेता क्या अफसर हो या ब्यापारी 
पग धरते ही जेल के अन्दर सब के सब बीमार हुए 

कैसा दौर चला है यारों गंदी कैसी राजनीती है
अमन चैन से रहने बाले दंगे से दो चार हुए 


दादी को नहीं दबा मिली मुन्ने का भी दूध खत्म
कर्फ्यू में मौका परस्त को लाखों के ब्यापार हुए 


तिल का ताड़ बना डाला क्यों आज सियासतदारों ने
आज बापू तेरे देश में कैसे ,कैसे अत्याचार हुए


हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई भाई
ख्बाजा साईं के घर में ये कहना क्यों बेकार हुए

 





प्रस्तुति
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

आँख मिचौली जागरण जंक्शन में


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आँख मिचौली


जब से मैंने गाँव क्या छोड़ा
शहर में ठिकाना खोजा
पता नहीं आजकल
हर कोई मुझसे
आँख मिचौली का खेल क्यों खेला करता है
जिसकी जब जरुरत होती है
बह बहाँ से गायब मिलता है
और जब जिसे जहाँ नहीं होना चाहियें
जबरदस्ती कब्ज़ा जमा लेता है
कल की ही बात है
मेरी बहुत दिनों के बात उससे मुलाकात हुयी
सोचा गिले शिक्बे दूर कर लूँ
पहले गाँव में तो उससे रोज का मिलना जुलना होता था
जबसे मुंबई में इधर क्या आया
या कहिये
मुंबई जैसेबड़े शहरों की दीबारों के बीच आकर फँस गया
पूछा
क्या बात है
आजकल आती नहीं हो इधर।
पहले तो हमारे आंगन भर-भर आती थी
दादी की तरह छत पर पसरी रहती थी हमेशा
तंग दिल पड़ोसियों ने
अपनी इमारतों की दीवार क्या ऊँची की
तुम तो इधर का रास्ता ही भूल गयी
तुम्हें अक्सर सुबह देखता हूं
कि पड़ी रहती हो
तंगदिल और धनी लोगों
के छज्जों पर
हमारी छत तो
अब तुम्हें भाती ही नहीं है
क्या करें
बहुत मुश्किल होती है
जब कोई अपना (बर्षों से परिचित)
आपको आपके हालत पर छोड़कर
चला जाता है
लेकिन याद रखो
ऊँची इमारतों के ऊँचे लोग
बड़ी सादगी से लूटते हैं
फिर चाहे वो दौलत हो या इज्जत हो
महीनों के बाद मिली हो
इसलिए सारी शिकायतें सुना डाली
उसने कुछ बोला नहीं
बस हवा में खुशबु घोल कर
खिड़की के पीछे चली गई
सोचा कि उसे पकड़कर आगोश में भर लूँ
धत्त तेरी की
फिर गायब
ये महानगर की धूप भी न
बिलकुल तुम पर गई है
हमेशा आँख मिचौली का खेल खेला करती है
बिना ये जाने
कि इस समय इस का मौका है भी या नहीं …

मदन मोहन सक्सेना






सोमवार, 26 अगस्त 2013

कृष्ण जन्म अष्टमी पर बिशेष ( अर्थ का अनर्थ )



अब तो आ कान्हा  जाओ, इस धरती पर सब त्रस्त हुए 
दुःख सहने को भक्त तुम्हारे आज सभी अभिशप्त हुए
नन्द दुलारे कृष्ण कन्हैया  ,अब भक्त पुकारे आ जाओ 
प्रभु दुष्टों का संहार करो और  प्यार सिखाने आ जाओ 











अर्थ का अनर्थ
 
एक रोज हम यूँ ही बृन्दावन गये
भगबान कृष्ण हमें बहां मिल गये
भगवान बोले ,बेटा मदन क्या हाल है ?
हमने कहा दुआ है ,सब मालामाल हैं

कुछ देर बाद हमने ,एक सवाल कर दिया
भगवान बोले तुमने तो बबाल कर दिया
सवाल सुन करके बो कुछ लगे सोचने
मालूम चला ,लगे कुछ बह खोजने

हमने उनसे कहा ,ऐसा तुमने क्या किया ?
जिसकी बजह से इतना नाम कर लिया
कल तुमने जो किया था ,बह ही आज हम कर रहे
फिर क्यों लोग , हममें तुममें भेद कर रहे

भगवान बोले प्रेम ,कर्म का उपदेश दिया हमनें
युद्ध में भी अर्जुन को सन्देश दिया हमनें
जब कभी अपनों ने हमें दिल से है पुकारा
हर मदद की उनकी ,दुष्टों को भी संहारा

मैनें उनसे कहा सुनिए ,हम कैसे काम करते है
करता काम कोई है ,हम अपना नाम करते हैं
देखकर के दूसरों की माँ बहनों को ,हम अपना बनाने की सोचा करते
इसी दिशा में सदा कर्म किया है,  कल क्या होगा  ,ये ना सोचा करते

माता पिता मित्र सखा आये कोई भी
किसी भी तरह हम डराया करते
साम दाम दण्डं भेद किसी भी तरह
रूठने से उनको मनाया करते

बात जब फिर भी नहीं है बनती
कर्म कुछ ज्यादा हम किया करतें
सजा दुष्टों को हरदम मिलती रहे
ये सोचकर कष्ट हम दिया करते 

मार काट लूट पाट हत्या राहजनी
अपनें हैं जो ,मर्जी हो बो करें
कहना तो अपना सदा से ये है
पुलिस के दंडें से फिर क्यों डरे

धोखे से जब कभी बे पकड़े गए
पल भर में ही उनको छुटाया करते
जब अपनें है बे फिर कष्ट क्यों हो
पल भर में ही कष्ट हम मिटाया करते

ये सुनकर के भगबान कहने लगे
क्या लोग दुनियां में इतना सहने लगे
बेटा तुने तो अर्थ का अनर्थ कर दिया
ऐसे कर्मों से जीवन अपना ब्यर्थ कर दिया 

तुमसे कह रहा हूँ मैं हे पापी मदन
पाप अच्छे कर्मों से तुमको डिगाया करेंगें
दुष्कर्मों के कारण हे पापी मदन
हम तुम जैसों को फिर से मिटाया करेंगें 



मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

गुनगुनाना चाहता हूँ


 
 
 
 
 
 
 
गज़ल गाना चाहता हूँ ,गुनगुनाना चाहता हूँ
ग़ज़ल का ही ग़ज़ल में सन्देश देना चाहता हूँ
ग़ज़ल मरती है नहीं बिश्बास देना चाहता हूँ
गज़ल गाना चाहता हूँ ,गुनगुनाना चाहता हूँ 
 
ग़ज़ल जीवन का चिरंतन प्राण है या समर्पण का निरापरिमाण है 
ग़ज़ल पतझड़ है नहीं फूलों भरा मधुमास है 
तृप्ती हो मन की यहाँ ऐसी अनोखी प्यास है 
ग़ज़ल के मधुमास में साबन मनाना चाहता हूँ 
गज़ल गाना चाहता हूँ ,गुनगुनाना चाहता हूँ

ग़ज़ल में खुशियाँ भरी हैं ग़ज़ल में आंसू भरे 
या कि दामन में संजोएँ स्वर्ण के सिक्के खरे 
ग़ज़ल के अस्तित्ब को मिटते कभी देखा नहीं 
ग़ज़ल के हैं मोल सिक्कों से कभी होते नहीं 
ग़ज़ल के दर्पण में ,ग़ज़लों को दिखाना चाहता हूँ


गज़ल गाना चाहता हूँ ,गुनगुनाना चाहता हूँ 
ग़ज़ल  दिल की बाढ़ है और मन की पीर है 
बेबसी में मन से बहता यह नयन का तीर है 
ग़ज़ल है भागीरथी और ग़ज़ल जीवन सारथी 
ग़ज़ल है पूजा हमारी ग़ज़ल मेरी आरती 
ग़ज़ल से ही स्बांस की सरगम बजाना चाहता हूँ 
गज़ल गाना चाहता हूँ ,गुनगुनाना चाहता हूँ


प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 22 जुलाई 2013

शिकबा

 

















नजर फ़ेर ली है खफ़ा हो गया हूँ
बिछुड़ कर किसी से जुदा हो गया हूँ

मैं किससे करूँ बेबफाई का शिकबा 
कि खुद रूठकर बेबफ़ा हो गया हूँ 

बहुत उसने चाहा बहुत उसने पूजा 
मुहब्बत का मैं देवता हो गया हूँ 

बसायी थी जिसने दिलों में मुहब्बत
उसी के लिए क्यों बुरा हो गया हूँ 

मेरा नाम अब क्यों तेरे लब पर भी आये
अब मैं अपना नहीं दूसरा हो गया हूँ 

मदन सुनाऊँ किसे अब किस्सा ए गम 
मुहब्बत में मिटकर फना हो गया हूँ . 



प्रस्तुति:

मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 21 जुलाई 2013

काश हम अकेले होते

 

 

 

काश हम अकेले होते (अणु भारती में पूर्ब प्रकाशित मेरा ब्यंग्य)

मदन मोहन सक्सेना .

 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

पेट की भूख

 















पेट की भूख की चाहत
मिटाने की खातिर
छपरा के सरकारी स्कूल में 
एक दो नहीं बल्कि बीस से ज्यादा बच्चों 
को  अपनी जिंदगी कुर्बान करनी पड़ी
निवाले हलक से नीचे उतरे नहीं 
कि दम लबों पर आ गया
बच्चों के अभिभावकों की पीड़ा 
कातर आंखों से आंसुओं की धार बनकर बही 
रुंधे गले में अटके लफ्ज 
बेटों को खो चुके पिता का कलेजा जार-जार हुआ 
इकलौती पुत्री के शव के सामने 
विलाप करते पिता को देखकर
दूसरे लोग  भी बदहवास हो गए 
परिजनों के विलाप से अस्पताल के कोने-कोने में कयामत की थरथरी गूंज गयी
जहरीला मिड डे मिल खाने से 
बच्चों की  मौत का आंकड़ा 20 के पार हो गया
कुछ बीमार बच्चों का इलाज अभी भी जारीहै 
अब भी कुछ बच्चों की हालत काफी नाजुक लगती है
अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करते बच्चें 
जायज है
नाराज लोगों का गुस्सा सरकार पर 
और जायज है
सरकार के खिलाफ गुस्साए लोगों का सड़क पर  प्रदर्शन 
किन्तु 
लोगों की  जगह जगह तोड़फोड़ , आगजनी 
गुस्‍साए लोगों का  पुलिस वैन को आग के हवाले करना
सही नहीं ठहराया जा सकता
और हादसे के बाद   सियासत जारी है
इस्तीफा और  नारेबाजी का शोर सुनाई दे रहा है 
सियासी पार्टियां पीड़ित परिवारों का दर्द 
बांटने की बजाय राजनीतिमें मशगूल दिखती हैं 
किसी पार्टी का छपरा बंद का ऐलान 
तो किसी पार्टी ने किया  बिहार बंद का आवाहन कर दिया 
एक बार फिर से मुख्यमंत्री का  घटना पर अफ़सोस 
एक बार फिर   कमिश्नर और पुलिस  से  जांच कराने के आदेश 
एक बार फिर  
मृतक बच्‍चों के परिवार को  मुआवजे का ऐलान 
कौन जनता था कि 
सरकारी विद्यालय में  पढ़ाने का यह हश्र होगा
पेट की भूख की चाहत 
इस जिंदगी को भी लील लेगी .
सबाल ये है कि 
इनका कसूरबार कौन है 
बच्चें 
उनके अभिभाबक 
स्कूल प्रशाशन 
लाचार ब्यबस्था 
या सब कुछ चलता है कि सोच बाली 
हम सब की अपनी आदतें .
ये कोई पहली बार नहीं है 
इससे पहले भी देश में कई बार 
मिड डे मील खाने से मासूमों की जान जा चुकी है
16 जुलाई 2013, छपरा (बिहार)
छपरा जिले के धर्मसाती गंडामन गांव के सरकारी स्कूल में जहरीला खाना खाने से 20 बच्चों की मौत।
22 जनवरी 2011, नासिक (महाराष्ट्र)
यहां के नगर निगम के स्कूल में जहरीला भोजन खाने से 61 बच्चे बीमार पड़े।
22 नवंबर 2009
दिल्ली के त्रिलोकपुरी स्थित शारदा जैन राजकीय सर्वोदय बालिका विद्यालय में मिड-डे मील खाने 120 छात्राएं बीमार।
24 अगस्त 2009 सिवनी (मध्य प्रदेश)
सरकारी स्कूल में मिड-डे मील के तहत पोहा खाने से 5 छात्र बीमार, पोहा में मरी हुई छिपकली मिली।
12 सितंबर, 2008 नरेंगा (झारखंड)
मिडल स्कूल में मिड-डे मील खाने से 60 छात्र बीमार।





मदन मोहन सक्सेना .














सोमवार, 15 जुलाई 2013

परमाणु पुष्प में पूर्ब प्रकाशित मेरा ब्यंग्य

परमाणु पुष्प में पूर्ब प्रकाशित मेरा ब्यंग्य:






मेरी बिदेश यात्रा .

मदन मोहन सक्सेना .

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

तत्सम पत्रिका में प्रकाशित मेरी कुछ क्षणिकाएँ

 














































तत्सम पत्रिका में प्रकाशित मेरी कुछ क्षणिकाएँ .

एक :
संबिधान है 
न्यायालय है
मानब अधिकार आयोग है 
लोकतांत्रिक सरकार है 
साथ ही 
आधी से अधिक जनता 
अशिक्षित ,निर्धन और लाचार है .



दो:
कृषि प्रधान देश है 
भारत भी नाम है 
भूमि है ,कृषि है, कृषक हैं 
अनाज के गोदाम हैं 
साथ ही 
भुखमरी,  कुपोषण में भी बदनाम है .


तीन:

खेल है 
खेल संगठन हैं 
खेल मंत्री है 
खेल पुरस्कार हैं 
साथ ही 
खेलों के महाकुम्भ में 
पदकों की लालसा में 
सौ करोड़ का भारत भी देश है .
























मदन मोहन सक्सेना .





रविवार, 7 जुलाई 2013

धमाका























एक और आतंकी धमाका  
जगह बदली 
किन्तु  तरीका नहीं बदला  बदला लेने का 
एक बार फिर धमाका  
मीडिया में फिर से शोर  
नेताओं को घटना स्थल पहुचनें की बेकरारी  
सुरक्षा एजेंसियों की एक और जांच पड़ताल 
राजनेताओं में एक और हड़कंप, 
आम लोगों को अपने बजूद की  चिंता 
सुरक्षा एजेंसियों को अपने साख बचाने की चिंता  
जगह जगह छापे  
और फिर  यदि कोई सूत्र मिला भी 
और आंतकी  हत्थे लगा भी  तो  
फिर से बही क़ानूनी पेचीदगियाँ 
फिर से  कोर्ट दर कोर्ट का सफ़र 
और  यदि सजा हो भी गयी   
फिर से रहम की गुजारिश  
फिर से दलगत और प्रान्त की  राजनीति  और 
फिर से  बही पुनराब्रती  
सच में कितना अजीब  लगता है
जब आंतकी  और  मानब अधिकारबादी 
मौत की सजा माफ़ करने की बात करतें है  
उनके लिए (आंतकी )  
जिसने मानब को कभी मानब समझा ही नहीं .
 
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

शून्यता

 





















जिसे चाहा उसे छीना , जो पाया है सहेजा है
उम्र बीती है लेने में ,मगर फिर शून्यता क्यों हैं


सभी पाने को आतुर हैं , नहीं कोई चाहता देना
देने में ख़ुशी जो है, कोई बिरला  सीखता क्यों है 


कहने को तो , आँखों से नजर आता सभी को है
अक्सर प्यार में ,मन से मुझे फिर दीखता क्यों है


दिल भी यार पागल है ,ना जाने दीन दुनिया को
दिल से दिल की बातों पर आखिर रीझता क्यों है


आबाजों की महफ़िल में दिल की कौन सुनता है
सही चुपचाप  रहता है और झूठा चीखता क्यों है



मदन मोहन सक्सेना


बुधवार, 26 जून 2013

सियासत


 



















इंसानों की बस्ती पर 
कुदरत की सबसे बड़ी मार
नेताओं का तांडव टूरिज्म 
तबाही पर नेताओं की सियासत 
किसी ने हजारों गुजराती  को सुरक्षित ले जाने का दाबा  किया 
तो कोई आठ दिन बाद अबतरित हुआ और 
ताम झाम के साथ राहत सामग्री को भेजता नजर आया 
तो कोई कोई हबाई दौरों से ही अपना कर्तब्य पूरा करता नजर आया 
भले ही हजारों लोग अब भी राहत का इंतज़ार कर रहे हों 
लेकिन
सूबे के मुखिया जिनकी जिम्मेदारी 
सूबे के लोगों के जान माल की सुरक्षा करना है 
बिज्ञापन देने में ब्यस्त हैं
उत्‍तराखंड में आई भीषण त्रासदी 
राहत कार्यों को लेकर सियासत चरम पर
देहरादून में कांग्रेस और टीडीपी के नेताओं में हाथापाई 
हाथापाई राहत का क्रेडिट लेने को लेकर 
हंगामे के दौरान टीडीपी अध्यक्ष भी वहां मौजूद
इंसानों की बस्ती पर 
कुदरत की सबसे बड़ी मार
नेताओं का तांडव टूरिज्म 
तबाही पर नेताओं की सियासत 
नेताओं को इस तरह भिड़ते देखकर 
लोगों का सिर शर्म से झुक जाए
लेकिन इनको ना शर्म आई और 
ना ही उत्तराखंड की तबाही में बर्बाद हुए लोगों की इन्हें फिक्र है
इन्हें फिक्र है तो बस इस बात की कि इनकी सियासत में कुछ गड़बड़ ना हो जाए.
ये कौन सा दौर है 
जहाँ आदमी की जान सस्ती है 
और राजनीति का ये कौन सा चरित्र है 
जहाँ सिर्फ सियासत 
ही मायने रखती है 
इसके लिए जितना भी गिरना हो 
मंजूर है .

प्रस्तुति: 
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 21 जून 2013

श्रद्धा





















कुदरत का कहर 
कई हजार लोगों के बीच में फसें होने की उम्मीद
अपनों का इंतज़ार करती आँखें 
जिंदगी की चाहत में मौत से पल पल का संघर्ष
फिर से बही गंदी कहानी 
शबों से पैसे,गहने  लुटते
आदमी के रूप में शैतान 
सरकार का बही ढीला रबैया 
हजारों के लिए गिनती के हेलिकॉप्टर 
राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की कशमकश
इस बीच 
खुद को
लाचार ,ठगा महसूस 
करता इस देश का नागरिक .
इन सबके बीच 
भारतीय सेना के जबानों ने 
साबित कर दिया
कि उनके मन में जितनी श्रद्धा 
भारत मत के लिए है 
उतनी या उससे कहीं अधिक 
चिंता देश के अबाम की है .


मदन मोहन सक्सेना .

गुरुवार, 20 जून 2013

फिर एक बार

पहले का केदारनाथ मंदिर









 
अभी का केदार नाथ मंदिर










फिर एक बार कुदरत का कहर
फिर एक बार मीडिया में शोर
फिर एक बार नेताओं का हवाई दौरा
फिर एक बार दानबीरों की कर्मठता
फिर एक बार प्रशाशन का  कुम्भकर्णी नींद से जागना
फिर एक बार
मन में कौंधता अनुत्तरित प्रश्न
आखिर ये कब तक
हम चेतेंगें भी या नहीं
आखिर
जल जंगल जमीन की अहमियत कब जानेगें?

मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 18 जून 2013

भरमार

एक तरफ देश में जहाँ गरीब जनता अपने लिए दो जून की रोजी रोटी के लिए संघर्ष कर रही है. देश में मंत्रियों का चुनाब काबिलियत के बजाय संबंधों पर किया जा रहा है . जनप्रतिनिधि जनता के प्रति अपनी जबाबदेही समझते ही नहीं है . अपने राजनितिक आकाओं को ही खुश करने में ही लगे रहतें हैं .


कांग्रेस में चाटूकारों की कमी नहीं है। सोनिया की चापलूसी करने वाले उनके लिए कुछ भी कर सकते है। राजनैतिक आका के लिए वफादारी का भोंडा प्रदर्शन करने में कांग्रेसी नेता कभी पीछे नहीं हटते है। कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष और प्रसंस्करण और कृषि विभाग के मंत्री खाद्य चरण दास महंत भी पार्टी अध्यक्ष सोनिया के लिए कुछ भी कर सकते है। अपनी वफादारी साबित करने के लिए वो सोनिया के कहने पर झाड़ू पोंछा करने तक को तैयार है।
महंत ने कहा है कि वह सोनिया के कहने पर पोंछा लगाने को भी तैयार हैं। छत्तीसगढ़ में पार्टी अध्यक्ष और मनमोहन सरकार के मंत्री से जब दोहरी जिम्मेदारी मिलने पर सवाल किया गया तो महंत ने जवाब दिया, 'अगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी मुझसे झाड़ू उठाकर राज्य कांग्रेस दफ्तर साफ करने को कहेंगी, तो मैं वह भी करूंगा।


हम   को   खबर  लगी  आज कल  अब  ये  
चमचों  की   होने  लगी आज भरमार है 

मैडम  जब    हँसती   हैं हँस देते कांग्रेसी  
साथ साथ  रहने को हुए बेकरार हैं 

कद  मिले, पद  मिले, और मंत्री पद मिले 
चमचों का होने लगा आज सत्कार है

चमचों ने पाए लिया ,खूब माल खाय लिया 
जनता है भूखी प्यासी ,हुआ हाहाकार है



 प्रस्तुति :   
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 14 जून 2013

नीति








दो चार बर्ष की बात नहीं अब अर्ध सदी गुज़री यारों 
हे भारत बासी मनन करो क्या खोया है क्या पाया है 

गाँधी सुभाष टैगोर  तिलक ने जैसा भारत सोचा था 
भूख गरीबी न हो जिसमें , क्या ऐसा भारत पाया है 


क्यों घोटाले ही घोटाले हैं और जाँच चलती रहती 
पब्लिक भूखी प्यासी रहती सब घोटालों की माया है 

अनाज भरा गोदामों में और सड़ने को मजबूर हुआ 
लानत है ऐसी नीति पर जो भूख मिटा न पाया है 

अब भारत माता लज्जित है अपनों की इन करतूतों पर 
बंसल ,नबीन  ,राजा  को क्यों जनता ने अपनाया है। 



प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना 

मंगलवार, 4 जून 2013

मुश्किल





पाने को आतुर रहतें हैं  खोने को तैयार नहीं है
 जिम्मेदारी ने
मुहँ मोड़ा सुबिधाओं की जीत हो रही.

साझा करने को ना मिलता , अपने गम में ग़मगीन हैं
स्वार्थ दिखा जिसमें भी यारों उससे केवल प्रीत हो रही .

कहने का मतलब होता था ,अब ये बात पुरानी  है
जैसा देखा बैसी बातें  .जग की अब ये रीत हो रही ...

अब खेलों  में है  राजनीति और राजनीति ब्यापार हुई
मुश्किल अब है मालूम होना ,किस्से किसकी मीत हो रही

क्यों अनजानापन लगता है अब, खुद के आज बसेरे में
संग साथ की हार हुई और  तन्हाई की जीत हो रही

 

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना


मंगलवार, 28 मई 2013

चुप्पी

आखिर क्यों ऐसा होता कि नेताओं को जब अपने विचार रखने चाहियें तो चुप हो जातें है और जिस बात से उनका दूर दूर तक लेना देना नहीं होता है उस पर बिना सोचे समझे बोले चले जातें है. अरुण जेटली ,नरेन्द्र मोदी, शरद पवार ,सी पी जोशी ,राजीब शुक्ल ,किरण रेड्डी की चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है. 

मदन मोहन सक्सेना .

शुक्रवार, 24 मई 2013

दोस्ती



























कभी गर्दिशों से दोस्ती कभी गम से याराना हुआ
चार पल की जिन्दगी का ऐसे कट जाना हुआ..

इस आस में बीती उम्र कोई हमे अपना कहे .
अब आज के इस दौर में ये दिल भी बेगाना हुआ

जिस रोज से देखा उन्हें मिलने लगी मेरी नजर
आखो से मय पीने लगे मानो की मयखाना हुआ

इस कदर अन्जान हैं हम आज अपने हाल से
हमसे मिलकरके बोला आइना ये शख्श बेगाना हुआ

ढल नहीं जाते हैं लब्ज यूँ ही रचना में कभी
कभी ग़ज़ल उनसे मिल गयी कभी गीत का पाना हुआ

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 15 मई 2013

कोशिश


13 ट्रेनें , 5,000 बसें और 60 नावों का इंतज़ाम करके  समर्थकों को पटना लाने के लिए लालू ने परिबर्तन रैली करके ये दिखाने की  कोशिश की है की जनता अब परिबर्तन चाहती हैं .
देखना होगा कि इस तामझाम से लालू परिबार की किस्मत कितनी बदल पाती है.
परिवार, परिवर्तन या पद। चाहिये क्या । पटना के गांधी मैदान में पटे पड़े पोस्टर को देख कर हर किसी ने कहा परिवार। पोस्टर को पढ़ा तो हर किसी को लगा बात तो परिवर्तन की हो रही है। और जब भाषण हुआ तो लगा लड़ाई तो सत्ता की है, पद पाने की है। पटना के गांधी मैदान ने इतिहास बनते हुये भी देखा है और बने हुये इतिहास को गर्त में समाते हुये भी देखा है। लेकिन पहली बार गांधी मैदान ने जाना समझा कि वक्त जब बदलता है तो संघर्ष के बाद परिवर्तन से ज्यादा संघर्ष करते हुये नजर आना ही महत्वपूर्ण हो जाता है। यह सवाल लालू यादव के लिये इसलिये है क्योंकि कभी जेपी के दांये-बांये खड़े होकर लालू और नीतीश दोनों ने इंदिरा गांधी को घमंडी और तानाशाह कहते हुये जेपी की बातों पर खूब तालियां बजायी हैं। और सत्ता में खोते देश में सत्ता के लिये हर संघर्ष करने वाले को सत्ताधारी अब तानाशाह और घमंडी नजर आने लगा है। यह सच भी है कि कमोवेश हर सत्ताधारी तानाशाह और घमंडी हो चला है। लेकिन इसे तोड़ने के लिये क्या वाकई कोई राजनीतिक संघर्ष हो रहा है। असल में लालू यही चूक रहे हैं और नीतिश इसी का लाभ उठा रहे हैं। दरअसल, इतिहास के पन्नों को टटोलें तो पटना के गांधी मैदान में लालू यादव और नीतिश कुमार ने 1974 से 1994 तक एक साथ संघर्ष किया। और अब इसी गांधी मैदान से नीतिश की सत्ता डिगाने के लिये लालू यादव अपने बेटे की सियासी ताजपोशी करते दिखे।

और गांधी मैदान जो बिहार ही नहीं देश की बदलती सियासत का गवाह रहा है, उसे एक बार फिर उसे संघर्ष में सत्ता पाने का लेप लगते हुये देखना पड़ा। क्योंकि जेपी और कर्पूरी ठाकुर के दौर में नाते-शिश्तेदारों के खिलाफ राजनीतिक जमीन पर खड़े होकर संघर्ष करने की मुनादी करने वाले लालू यादव कितना बदले इसकी हवा परिवर्तन रैली में बहेगी। परिवर्तन की नयी बयार बिहार की सियासत के लिये इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अभी तक सत्ता के लिये लालू का हर संघर्ष नीतिश की सत्ता को ही मजबूत करता रहा है। और नीतिश हमेशा ठहाका लगाकर यह कहने से नहीं चूकते कि मुझे हटाकर क्या लालू की सत्ता चाहते हैं। और बिहार की जनता खामोशी से नीतिश धर्म को ही बेहतर मान चुप हो जाती है। लेकिन इस बार लालू का वार दोहरा है, जिसमें वह खुद को माइनस कर चलते दिखे और गांधी मैदान में युवा बिहार के लिये अपने बेटों के जरीये विकल्प का सवाल उठाते दिखे तो मोदी के डंक को मुस्लिमो को चुभाकर नीतिश के आरएसएस के गोद में बैठने की बात भी कह गये।

लेकिन लालू की सबसे बड़ी मुश्किल वही कांग्रेस है, जिसकी पीठ पर सवार होकर उन्होंने दिल्ली की सत्ता का स्वाद भी लिया। अब वही कांग्रेस लालू को पीठ दिखा कर नीतिश को साधने में जुटी है। और लालू के पास इसका जवाब नहीं है जबकि कभी जेपी ने गांधी मैदान में जब नारा लगाया था इंदिरा हटाओ देश बचाओ तब लालू जेपी के साथ खड़े थे। ऐसे मोड़ पर गांधी मैदान परिवर्तन की गूंज कैसे सुन पायेगा और परिवर्तन के नाम पर सिर्फ भीड भड़क्का को ही देखकर इतना ही कह पा रहा है कि लालू का मिथ टूटा नहीं है। क्योंकि भरी दोपहरी और फसल में फंसे किसान-मजदूरों के बीच भी रैली हो गई। यह अलग बात है कि रैली ने यह संदेश भी दे दिया कि बिहार परिवर्तन चाहता है और उसे विकल्प की खोज है। लेकिन कोई परिवार, परिवर्तन या पद के नाम पर गांधी मैदान के जरीये बिहार को ठग नहीं सकता है।

यू पी ए २ एक सौ अस्सी करोड़ खर्च करके एक सौ बीस करोड़ लोगों को ये बताने की कोशिश करेगी की अब कितने मील और आगे जाना है .


बुधवार, 8 मई 2013

तन्हाई की महफ़िल




सजा  क्या खूब मिलती है ,  किसी   से   दिल  लगाने  की
तन्हाई  की  महफ़िल  में  आदत  हो  गयी   गाने  की 

हर  पल  याद  रहती  है , निगाहों  में  बसी  सूरत 
तमन्ना  अपनी  रहती  है  खुद  को  भूल  जाने  की 

उम्मीदों   का  काजल    जब  से  आँखों  में  लगाया  है
कोशिश    पूरी  रहती  है , पत्थर  से  प्यार  पाने  की

अरमानो  के  मेले  में  जब  ख्बाबो  के  महल   टूटे 
बारी  तब  फिर  आती  है , अपनों  को  आजमाने  की

मर्जे  इश्क  में   अक्सर हुआ करता है ऐसा भी
जीने पर हुआ करती है ख्वाहिश मौत पाने की

प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 6 मई 2013

अब की बारी रेल की


पहले टू जी का खेल 
फिर खेल में खेल 
और अब 
रेल से मेल .












फिर एक घोटाला
अब की बारी 
आयी रेल की 

फिर एक घोटाला  
फिर एक बार मीडिया में शोर 
 फिर एक बार नेताओं की तू तू मैं मैं 
फिर एक बार सरकार की जाँच की बात 
फिर एक बार जाँच के बहाने  घोटाले को दबाने की साजिश  
फिर एक बार समिति का गठन 
 फिर एक बार जनहित याचिका की उम्मीद 
 फिर एक बार उच्चत्तम न्यायालय से  अपेछा
 फिर एक बार जनता का बुदबुदाना  कि  जाने दो  सब एक जैसे हैं।
किन्तु 
ऐसा कह कर 
हम अपनी जिम्मेदारी से बिमुख नहीं हो सकते  
अब समय आ गया 
कि हम सब अपनेस्तर से लोगों को 
आगाह करें कि भ्रष्टाचार करना 
जितना बड़ा जुर्म है 
उसे सहना 
और भ्रष्टाचार देखकर 
चुपचाप रहना  भी कम बड़ा जुर्म नहीं है. 



प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना  


















 

बुधवार, 1 मई 2013

ये कैसा समय










 

ये कैसी ईमानदारी 
जिसके नेत्रत्ब में करोड़ों का घपला हो 
ये कहाँ की सरदारी 
जब कोई दुश्मन आपके घर में आ धमके 
और आप स्थानीय समस्या बोलें 
ये कैसा बद्दपन 
कि पडोसी मुल्क आपके सैनिकों के सर काट  डालें 
और आप इसकी उपेछा करतें रहें 
ये कैसी निति कि 
कोई भी मुल्क आपकी बातों को गम्भीरता से ना लें 
और जब मौका मिले पलट जाये .
ये कैसी सुरछा 
कि 
देश की गुड़िया और बेटियां अपने को खतरें में महसूस करें 
और 
करोड़ों भुखमरी के शिकार बाले देश में 
चन्द लोगों के रहने के लिए  अरबों फुकनें बालें अम्बानी 
की सुरछा के लिए 
सरकार नियमों में परिबर्तन के लिए 
ब्याकुल लगे .
ये कैसा नशा कि 
पानी की एक एक बूंद को तरसने को मजबूर 
लोगों को उनकी दशा पर छोड़ कर 
सस्ते पानी के टैंकर  देकर 
हरे भरे मैदान में 
क्रिकेट का मजा राजनेता लें .
ये कैसा समय 
राम जाने ....... 



प्रस्तुति 
मदन मोहन सक्सेना